बून्द या कतरा

बहुत देर हो चुकी थी
अब घर छोड़े को,
जब होश आया
तो वजूद मिला
थरथराते हुए रेंगते हुए रिसते हुए
एक बर्फ की डली पर,
और फिर अचानक से एक हादसा हुआ
हल्दी और मांस की महक से लबालब भरी ,
दो उंगलियों ने उठा कर फेंक दिआ मुझे
उबलते तेल सा दिखते मगर शीतल बुलबुलों की खलबली के बीच
किसी शराबी की बियर को ठंडा करने को ,
2-4 घूँटों की ही तो बस हैसियत नहीं हो सकती मेरी
ये सोच
एक कदम उठाया
उन बेजान उड़ते गुब्बारों के बीच से
और फिर कांच की परत लांघ कर
नजदीक से बहते
पानी की धार भर को
अपना लक्ष्य मान,
फिर कुछ और छोटी बूंदों का सहारा लिए
वो भटकी राह की धारा
जो मेज पर जाने किस दिशा को मुड़ जाये
उस धारा को मुक्कदर मान
मैं बह निकली,
राहगीर थी कुछ बूँदें
जो दम तोड़ बैठी
कुछ व्यथा सुनाती
कुछ अकेलेपन की दुहाई देती
कुछ बेवजूद मिटाये जाने के खौफ में पनपति
मगर आँखों में बेतहाशा चमक लिए वो हर बूँद,
और फिर धड़ाम के शोर से
1 खाली मयकदा आ गिरा मुझ पर
शायद यही अंत था,
मगर नहीं
वो ले उड़ा मुझे
और कही दूर नदी किनारे छोड़ आया ,
अब मैं कोई सिर्फ बूँद नहीं थी
मेरा अस्तितवा अब
विशाल लम्बा दिग्गज विस्मयी था,
अब हृदय में सिर्फ उल्लास था
सब स्मृतियाँ फीकी सी पड़ने लगी थी
अतीत का आइना धुन्दलाने लगा था,
चंद घंटों पहले ख्वाब शायद एक अंजुली भर के थे
मगर अब चट्टानों को चीर कर
हर बंदिश तोड़ कर
अपने पुरे उफान से
जा मिली मैं उस चौड़े समंदर से ,
मैं अभी अभी कुछ क्षण पहले
महासागर हो चुकी थी !
एक नई दुनिया
नया अहसास
और ये बेशुमार ताकत
हर किनारा चूमना मेरा मोह
हर रेत के ज़र्ररे से लिपटना मेरी ताकत बन गई,
और फिर एक शिकारी चिड़िया ने
मछली को पानी से उठा कर
और साथ ही चोंच में भर कर
दूर किसी बड़े सूखे पेड़ पर ले जाकर
मुझे भी पटक दिया
उस छटपटाती मछली के पास ,
चारो और के आसमान में बिखरी
सूर्यास्त की लालिमा का डर नहीं था मुझे
मगर सूर्योदय से पहले अगर कोई बारिश न हुई
तो मेरा आखिरी वज़ूद क्या होगा!
समंदर?
समंदर का कतरा?
या बस एक 
बूँद?

Wriiten by Sumit Sharma

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *